zindagi aur maut
अगर ज़िन्दगी के बारे में सोचा जाए तो मौत भी उससे ज्यादा भिन्न नहीं लगती है
अंधेरों की बेड़ियों में क़ैद ज़िन्दगी, हंसती और मुस्कुराती ज़िन्दगी किस दिन न जाने मौत से जाकर एक हो जाती है, पता भी नही चलता।
ये ज़िन्दगी एक बड़ी होती बेटी की तरह है : प्यारी सी, पर हर दिन बढती और बदलती हुई, पर इस सब बदलाव का एहसास नहीं होता हमें तब तक जब तक की एक दिन उसे ध्यान से दो पल देख लिया न जाए और एक एहसास आके दिल और दिमाग की दीवारों को तोड़ता हुआ अन्दर न आ जाए की अब बेटी बड़ी हो गई है, और थोड़ी चिंता और डर उसके बढ़ने और खुदसे जुदा होने का सीने में धक् धक् न करने लगे। बिलकुल ऐसा ही ज़िन्दगी के साथ भी है : एक दिन गौर से बैठ के देखो तोह वो भागती हुई मिलेगी, हाथों से फिसलती हुई, धुंए की तरह उडती हुई और एक तपिश पीछे छोडती हुई, एक तपिश जिसमें घुटन का एहसास है जो धीमे धीमे साँसों में मिलके पहले शरीर को सुला देगा और फिर तुम्ही को हमेशा के लिए।
मौत और ज़िन्दगी क्या अलग हैं? शायद नहीं। ज़िन्दगी का अंत मौत में होना है। मौत का अंत किसी को पता नही। पर शायद मौत का अंत भी जन्दगी ही है। दो पल रुक कर सोचा जाए तो जब इंसान बेंतेहा दर्द में होता है तो वो मौत को अपनाना चाहता है, जब मौत आ रही होती है तो वो दो पल जीना चाहता है। इच्छाओं का अंत इतनी आसानी से संभव तक नहीं है। हर पल ढूंढ ढूंढ कर एक नया पल खोजते हैं, एक नयी ख़ुशी की चाह में। और खुशियाँ वो उद्द जाती हैं दो पल लबों पर टिककर एक मुस्कान की तरह बिलकुल वैसे ही जैसे कुछ वक़्त के बाद बरसती हुई आँखें भी रूखी सूखी हो जाती हैं देर तक मेज़ पर पड़ी रोटी की तरह।
मैंने शायद कभी एक बीच का रास्ता नहीं ढूँढा अपना ही जीवन जीने के लिए। चाय का उदहारण लूँ तो कह सकती हूँ की ज़िन्दगी चाय की तरह रह गई। जब बहुत इच्छा से पीनी चाही और बेहद ज़रूरत में तब उबलती हुई ही निगल ली और वो जीभ और गले को बुरी तरह जला गई। कभी मीठी मीठी चुस्कियां भरने का सोचा तो शोर इतना हुआ की चाय से ध्यान हटके उस ओर चला गया। कभी पड़े पड़े उसे इतना ठंडा कर दिया की वो बेस्वाद हो गई पानी की तरह। कभी बहुत ज्यादा पी ली तो रात भर जगती रही और कभी इतनी कम की एहसास भी नही हुआ की कब ख़त्म हो गई। पर सौ बातों की एक बात येही है की माप टोल करते करते शायद ज़िन्दगी जीने औए चाय पीने दोनों का मज़ा ही चला गया।
अंधेरों की बेड़ियों में क़ैद ज़िन्दगी, हंसती और मुस्कुराती ज़िन्दगी किस दिन न जाने मौत से जाकर एक हो जाती है, पता भी नही चलता।
ये ज़िन्दगी एक बड़ी होती बेटी की तरह है : प्यारी सी, पर हर दिन बढती और बदलती हुई, पर इस सब बदलाव का एहसास नहीं होता हमें तब तक जब तक की एक दिन उसे ध्यान से दो पल देख लिया न जाए और एक एहसास आके दिल और दिमाग की दीवारों को तोड़ता हुआ अन्दर न आ जाए की अब बेटी बड़ी हो गई है, और थोड़ी चिंता और डर उसके बढ़ने और खुदसे जुदा होने का सीने में धक् धक् न करने लगे। बिलकुल ऐसा ही ज़िन्दगी के साथ भी है : एक दिन गौर से बैठ के देखो तोह वो भागती हुई मिलेगी, हाथों से फिसलती हुई, धुंए की तरह उडती हुई और एक तपिश पीछे छोडती हुई, एक तपिश जिसमें घुटन का एहसास है जो धीमे धीमे साँसों में मिलके पहले शरीर को सुला देगा और फिर तुम्ही को हमेशा के लिए।
मौत और ज़िन्दगी क्या अलग हैं? शायद नहीं। ज़िन्दगी का अंत मौत में होना है। मौत का अंत किसी को पता नही। पर शायद मौत का अंत भी जन्दगी ही है। दो पल रुक कर सोचा जाए तो जब इंसान बेंतेहा दर्द में होता है तो वो मौत को अपनाना चाहता है, जब मौत आ रही होती है तो वो दो पल जीना चाहता है। इच्छाओं का अंत इतनी आसानी से संभव तक नहीं है। हर पल ढूंढ ढूंढ कर एक नया पल खोजते हैं, एक नयी ख़ुशी की चाह में। और खुशियाँ वो उद्द जाती हैं दो पल लबों पर टिककर एक मुस्कान की तरह बिलकुल वैसे ही जैसे कुछ वक़्त के बाद बरसती हुई आँखें भी रूखी सूखी हो जाती हैं देर तक मेज़ पर पड़ी रोटी की तरह।
मैंने शायद कभी एक बीच का रास्ता नहीं ढूँढा अपना ही जीवन जीने के लिए। चाय का उदहारण लूँ तो कह सकती हूँ की ज़िन्दगी चाय की तरह रह गई। जब बहुत इच्छा से पीनी चाही और बेहद ज़रूरत में तब उबलती हुई ही निगल ली और वो जीभ और गले को बुरी तरह जला गई। कभी मीठी मीठी चुस्कियां भरने का सोचा तो शोर इतना हुआ की चाय से ध्यान हटके उस ओर चला गया। कभी पड़े पड़े उसे इतना ठंडा कर दिया की वो बेस्वाद हो गई पानी की तरह। कभी बहुत ज्यादा पी ली तो रात भर जगती रही और कभी इतनी कम की एहसास भी नही हुआ की कब ख़त्म हो गई। पर सौ बातों की एक बात येही है की माप टोल करते करते शायद ज़िन्दगी जीने औए चाय पीने दोनों का मज़ा ही चला गया।
मौत के बारे में कहने को मेरे पास कुछ भी नहीं। बस युही लगता है की मौत एक और ज़िन्दगी की तरह है। यहाँ भी कुछ है, वहां भी कुछ है। ज़िन्दगी जिस मोड़ पर रुकने का सोचेगी तो मौत दर पे खड़ी खुली बाहों के साथ उसे अपने आघोष में लेने का इंतज़ार कर रही होगी। क्या इस संगम की सुन्दरता मनन को छू नहीं जाती? फिर मौत से डर कैसा , उससे नफरत किस बात की?
ख़ुशी और ग़म को भी जिन पय्मानो में नापा है हमने क्या वो सही है? अक्सर देखा है हमने की जब ख़ुशी हद्दें पार कर लेती है तो आंसू बनकर छलक पड़ती है और जब दुःख दिल को इतना भेद देता है की आँखें सूख जाएं तो मुस्कराहट उसकी जगह ले लेती है। फिर क्या ग़म है औ क्या ख़ुशी? टिकता तो दोनों में से कुछ भी नहीं। रुक कर दो पल सोचने की ज़रूरत है। क्या जीवन और जहां में ऐसा कुछ भी है जो ईटा भिन्न हो की किसी के साथ जुड़ न सके , किसी का हो न सके? हम सब इस वजूद तक से की हम हम सब हैं एक दुसरे से, प्रकृति से और सभी चीज़ों से जुड़े हुए हैं। इसी तरह एक अनदेखी डोर मौत और ज़िन्दगी, दुःख और सुख और मुझे और तुम्हें जोड़े रखती है बिना कुछ कहे, सुने या समझे। उसका काम बस सबको एक दुसरे से बांधे रखना है। ये बंधन ही ज़िन्दगी है, और यही बंधन मौत भी है।
शांत, सकारात्मक और सुन्दर ह्र्य्दयोद्गार।
ReplyDelete